सोमवार, 5 अप्रैल 2010

नए दौर के क्रिया-कलाप देखकर मन कभी-कभी इतना क्षुब्ध हो जाता है कि बुजुर्गों के दिखाए हुए रास्तों का पुनरावलोकन करने का मन करता है। सोचने के बाद महसूस होता है कि हम आखिर कहाँ जा रहे हैं, किधर जा रहे हैं,क्या कर हे हैं और क्यों कर रहे हैं। इस दौर की इसी भटकन पर सहसा एक गीत बन गया। मन कर रहा है कि आप के साथ इसे साझा कर ही लिया जाय। तो प्रस्तुत है वही गीत आप की खिदमत में....

पुरखों वाला सीधा- सादा
रस्ता हमने छोड़ दिया
सच कहने वाला मन-दर्पण
जान-बूझकर तोड़ दिया

जंगल में थे जानवरों में
मगर जानवर नहीं हुए
नीरज दल की भांति नीर में
रहकर भी अनछुए रहे
अब शहरों में आकर जीवन
जंगलपन से जोड़ दिया

जिसमें जितनी अक्ल अधिक
लालच उतना विकराल हुआ
श्वेत , साफ परिधानों का
दामन शोणित से लाल हुआ
अर्थ-लाभ हित हिंसा-पथ पर
जीवन-रथ को मोड़ दिया

इन्द्रधनुष के झूठे वादों
ने तन-मन पर राज किया
पीतल पर सोने का पानी
हम सबने स्वीकार किया
सच की राह दिखाई जिसने
उसका हाथ मरोड़ दिया

तरुणाई का तन घायल है
अंगड़ाई का मन घायल
मन की निर्मलता का सच
बचपन का भोलापन घायल
इन घावों पर छल-फरेब का
नीबू-नमक निचोड़ दिया

काश! सत्य का बीज उगे फिर
मानव - मन की क्यारी में
फिर हो बचपन का भोलापन
गुड़ियों की रखवाली में
इसी स्वप्न ने कवि के मन को
फिर से आज झिंझोड़ दिया
सच कहने वाला....