बुधवार, 30 जून 2010

उछलकर छींट कीचड़ की

मित्रो,बहुत दिनों बाद आज फिर आप से मुखातिब होने का मौका मिला है। अपनी एक ताज़ा ग़ज़ल आप तक पहुंचाने का मन कर रहा है। तो लीजिये पेशे खिदमत है मेरी ये ग़ज़ल। अच्छी लगे तो ...........


उछलकर छींट कीचड़ की तुम्हारी ओर आई है

तुम्हारे हाथ के पत्थर की इतनी सी कमाई है

सियासत खून पीती है हमारा तो ग़लत क्या है
दरख्ते ज़िन्दगी पर बेल हमने ख़ुद चढ़ाई है

झकाझक है शहर सारा सजी है हर गली इसकी
अमीरे शहर की बेटी की, लगता है, सगाई है

ज़माने भर की सुन्दरता हमें अच्छी नहीं लगती
हमारी आँख में जबसे तेरी सूरत समाई है

अगन ये इश्क की बुझती नहीं दरिया के पानी से
ये पानी से नहीं प्यासे से प्यासे की लड़ाई है

कहीं दौलत की फिसलन है कहीं पर हुस्न की फिसलन
कि राहे ज़िन्दगी पर हर जगह काई ही काई है

हमारे दिल की अंगनाई को छोटा कर गयी कितना
न जाने मज़हबी दीवार ये किसने उठाई है

अधिक क्या पढ़ गए माँ-बाप से कटने लगे बच्चे
बताओ इस ज़माने की 'तरल' कैसी पढ़ाई है