शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

धन्य-धन्य कविता रानी !

मित्रो,
अरसे बाद अपने ब्लॉग पर आ रहा हूँ और इस बार का आना कुछ परिवर्तन के साथ हो रहा है। असल में इस समय पूरे देश में हिंदी पखवाड़ा मनाया जा रहा है। सरकारी, गैर सरकारी कार्यालयों,संस्थाओं में तरह-तरह के कार्यक्रम हो रहे हैं। व्यक्तिगत स्तर पर मुझे पखवाड़ा मनाने का सबसे आसान तरीका यही लगा कि मैं अपने ब्लॉग पर ही कुछ करूं। असल में कतिपय कारणों से मुझे अपने ब्लॉग का नाम और पास-वर्ड बदलना पड़ रहा है। 'गहराइयां' का नया नाम है 'तरल-तरंगें'। इस नए नाम से जुड़ने में जो भी तकलीफ हो सकती है उसके लिए मैं सभी से क्षमा प्रार्थी हूँ। नाम बदला है तो कम से कम एक नई पोस्ट तो तुरंत पड़नी ही चाहिए। मैंने एक लम्बा गीत लिखा है कविता को संबोधित करते हुए। वैसे तो यह गीत किसी भी भाषा में लिखी कविता पर पूरी तरह लागू होता है लेकिन चूँकि एकाध स्थान पर यह हिंदी कविता के स्रोतों और स्वरूपों से सीधा सम्बन्ध स्थापित करता है इसलिए मैं इसे सबसे अधिक हिंदी कविता पर लिखा गया ही मानता हूँ। आज उसी गीत को आप सबसे साझा करना चाहता हूँ। तो लीजिये प्रस्तुत है हिंदी कविता पर एक लम्बा गीत :


आसमान
की ऊंचाई हो
तुम सागर का गहरा पानी
धन्य-धन्य ओ कविता रानी

बापू के
मन की चिन्ता-सी
माँ के नयनों का सावन हो
बढ़ती हुई
सयानी बिटिया
की सूरत-सी मन भावन हो
तुम्हीं ख़ुशी
के गीतों में हो
तुम्हीं सिसकियों भरी कहानी
धन्य-धन्य ओ कविता रानी

चौपाई,
सोरठा, सवैया
ग़ज़ल, गीत में बंधा बंद हो
कभी नयी
कविता में बहतीं
अनुशासन से मुक्त छंद हो
नहीं किसी
का कोई बंधन
तुम कवि की पूरी मनमानी
धन्य-धन्य कविता रानी

राधा की
पायल की रुन-झुन
कान्हा की वंशी की धुन हो
फूलों के
आकर्षण में तुम
तुम्हीं भ्रमर की मृदु गुंजन हो
पछुआ का
तुम तीब्र वेग हो
तुम पुरवा की छुअन सुहानी
धन्य-धन्य कविता रानी

चट्टानों-सी
अडिग कभी तुम
मानव-मन के दावे जैसी
ज्वालामुख
से कभी फूटते
विद्रोहों के लावे जैसी
जमीं हुई
तब तक हिमगिरि हो
पिघलीं तो गंगा का पानी
धन्य-धन्य कविता रानी

देश भक्ति
में कभी उछलते
नस फडकाते नारों में हो
सीमा पर
लड़ती सेना की
तोपों में, तलवारों में हो
और कभी
तुम प्रेम-शांति की
सम्वाहक संतों की वानी
धन्य-धन्य कविता रानी

वाल्मीकि
की रामायण को
सर्व प्रथम तुमने ही गाया
तुलसी के
'मानस' में तुमने
अपना नाना रूप दिखाया
तुम 'गीता'
हो तुम 'कुरान' हो
तुम्हीं 'ग्रन्थ साहिब' की वानी
धन्य-धन्य कविता रानी

आने वाले
कल की आहट
बीती हुई व्यथा की बातें
किसी सताए
हुए व्यक्ति की
होठों से निकलीं फरियादें
तुम्हीं गीत
हो तुम्हीं चीख, जो
सीने से निकले अनजानी
धन्य-धन्य कविता रानी

सपनों के
गर्भ से निकलकर
सपनों से आगे बढ़ जातीं
देखा नहीं
जिसे आँखों से
वह दुनियाँ भी तुम दिखलातीं
कोई नहीं
तुम्हारे जैसा
कोई नहीं तुम्हारा सानी
धन्य-धन्य कविता रानी

3 टिप्‍पणियां:

  1. बन्धु, आप की तरलता और आप की तरंग, दोनों से वाकिफ हूं. वह हमेशा बनी रहे, यह मेरी शुभकामना है. यही दो चीजें जीवन को जीवन बनाती हैं. आप ने अपनी तरलता तो बहुत पहले पहचान ली थी, पर या तो इतने गहरे चले गये कि तरंगों को पहचानना मुश्किल हो गया या फिर तरंग ही हो गये. हम लोग तो बाहर से देखते हैं तो सब साफ-साफ दिखता है, तरलता भी, तरंग भी और गहराई भी. वैसे नाम में क्या रखा है, असली चीज तो काम है और उसमें भी आप पीछे कहां हो. कविता का यह गीत-पुराण बताता है कि आप जाग्रत साहित्य-देव हो. प्रणाम निवेदन है.

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  2. काम और नाम के धनी फिर भी तरल, ऐसे मिलते हैा विरल। सच कह रहे हैं सुभाष भाई

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  3. ♥(¯`'•.¸(¯`•*♥♥*•¯)¸.•'´¯)♥
    ♥नव वर्ष मंगबलमय हो !♥
    ♥(_¸.•'´(_•*♥♥*•_)`'• .¸_)♥




    आसमान
    की ऊंचाई हो
    तुम सागर का गहरा पानी
    धन्य-धन्य ओ कविता रानी

    वाऽह ! बहुत सुंदर कविता है ...
    क्या बात है !
    आदरणीय डॉ.त्रिमोहन तरल जी

    लेकिन आप आजकल कहां हैं ?
    आशा है सपरिवार स्वस्थ सानंद हैं
    नई पोस्ट बदले हुए बहुत समय हो गया है …
    आपकी प्रतीक्षा है सारे हिंदी ब्लॉगजगत को …
    :)


    नव वर्ष की शुभकामनाओं सहित…
    राजेन्द्र स्वर्णकार
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